रावण के जन्म की कथा
अगस्त्य मुनि ने कहना जारी रखा, “पिता की आज्ञा पाकर कैकसी विश्रवा के पास गई और उन्हें अपने अभिप्राय से अवगत कराया। उस समय भयंकर आँधी चल रही थी। आकाश में मेघ गरज रहे थे। कैकसी का अभिप्राय जानकर विश्रवा ने कहा कि भद्रे! तुम इस कुबेला में आई हो। मैं तुम्हारी इच्छा तो पूरी कर दूँगा परन्तु इससे तुम्हारी सन्तान दुष्ट स्वभाव वाली और क्रूरकर्मा होगी। मुनि की बात सुनकर कैकसी उनके चरणों में गिर पड़ी और बोली कि भगवन्! आप ब्रह्मवादी महात्मा हैं। आपसे मैं ऐसे दुराचारी सन्तान पाने की आशा नहीं करती। अतः आप मुझ पर कृपा करें। कैकसी के वचन सुनकर मुनि विश्रवा ने कहा कि अच्छा तो तुम्हारा सबसे छोटा पुत्र सदाचारी और धर्मात्मा होगा।
“इस प्रकार कैकसी के दस मुख वाले पुत्र का जन्म हुआ जिसका नाम दशग्रीव रखा गया। उसके पश्चात् कुम्भकर्ण, शूर्पणखा और विभीषण के जन्म हुये। दशग्रीव और कुम्भकर्ण अत्यन्त दुष्ट थे, किन्तु विभीषण धर्मात्मा प्रकृति का था। दशग्रीव ने अपने भाइयों सहित ब्रह्माजी की तपस्या की। ब्रह्मा के प्रसन्न होने पर दशग्रीव ने माँगा कि मैं गरुड़, नाग, यक्ष, दैत्य, दानव, राक्षस तथा देवताओं के लिये अवध्य हो जाऊँ। ब्रह्मा जी ने ‘तथास्तु’ कहकर उसकी इच्छा पूरी कर दी। विभीषण ने धर्म में अविचल मति का और कुम्भकर्ण ने वर्षों तक सोते रहने का वरदान पाया।
“फिर दशग्रीव ने लंका के राजा कुबेर को विवश किया कि वह लंका छोड़कर अपना राज्य उसे सौंप दे। अपने पिता विश्रवा के समझाने पर कुबेर ने लंका का परित्याग कर दिया और रावण अपनी सेना, भाइयों तथा सेवकों के साथ लंका में रहने लगा। लंका में जम जाने के बाद अपने बहन शूर्पणखा का विवाह कालका के पुत्र दानवराज विद्युविह्वा के साथ कर दिया। उसने स्वयं दिति के पुत्र मय की कन्या मन्दोदरी से विवाह किया जो हेमा नामक अप्सरा के गर्भ से उत्पन्न हुई थी। विरोचनकुमार बलि की पुत्री वज्रज्वला से कुम्भकर्ण का और गन्धर्वराज महात्मा शैलूष की कन्या सरमा से विभीषण का विवाह हुआ। कुछ समय पश्चात् मन्दोदरी ने मेघनाद को जन्म दिया जो इन्द्र को परास्त कर संसार में इन्द्रजित के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
“सत्ता के मद में रावण उच्छृंखल हो देवताओं, ऋषियों, यक्षों और गन्धर्वों को नाना प्रकार से कष्ट देने लगा। एक बार उसने कुबेर पर चढ़ाई करके उसे युद्ध में पराजित कर दिया और अपनी विजय की स्मृति के रूप में कुबेर के पुष्पक विमान पर अधिकार कर लिया। उस विमान का वेग मन के समान तीव्र था। वह अपने ऊपर बैठे हुये लोगों की इच्छानुसार छोटा या बड़ा रूप धारण कर सकता था। विमान में मणि और सोने की सीढ़ियाँ बनी हुई थीं और तपाये हुये सोने के आसन बने हुये थे। उस विमान पर बैठकर जब वह ‘शरवण’ नाम से प्रसिद्ध सरकण्डों के विशाल वन से होकर जा रहा था तो भगवान शंकर के पार्षद नन्दीश्वर ने उसे रोकते हुये कहा कि दशग्रीव! इस वन में स्थित पर्वत पर भगवान शंकर क्रीड़ा करते हैं, इसलिये यहाँ सभी सुर, असुर, यक्ष आदि का आना निषिद्ध कर दिया गया है। नन्दीश्वर के वचनों से क्रुद्ध होकर रावण विमान से उतरकर भगवान शंकर की ओर चला। उसे रोकने के लिये उससे थोड़ी दूर पर हाथ में शूल लिये नन्दी दूसरे शिव की भाँति खड़े हो गये। उनका मुख वानर जैसा था। उसे देखकर रावण ठहाका मारकर हँस पड़ा। इससे कुपित हो नन्दी बोले कि दशानन! तुमने मेरे वानर रूप की अवहेलना की है, इसलिये तुम्हारे कुल का नाश करने के लिये मेरे ही समान पराक्रमी रूप और तेज से सम्पन्न वानर उत्पन्न होंगे। रावण ने इस ओर तनिक भी ध्यान नहीं दिया और बोला कि जिस पर्वत ने मेरे विमान की यात्रा में बाधा डाली है, आज मैं उसी को उखाड़ फेंकूँगा। यह कहकर उसने पर्वत के निचले भाग में हाथ डालकर उसे उठाने का प्रयत्न किया। जब पर्वत हिलने लगा तो भगवान शंकर ने उस पर्वत को अपने पैर के अँगूठे से दबा दिया। इससे रावण का हाथ बुरी तरह से दब गया और वह पीड़ा से चिल्लाने लगा। जब वह किसी प्रकार से हाथ न निकाल सका तो रोत-रोते भगवान शंकर की स्तुति और क्षमा प्रार्थना करने लगा। इस पर भगवान शंकर ने उसे क्षमा कर दिया और उसके प्रार्थाना करने पर उसे एक चन्द्रहास नामक खड्ग भी दिया।”
अगस्त्य मुनि ने कथा को आगे बढ़ाया, “एक दिन हिमालय प्रदेश में भ्रमण करते हुये रावण ने ब्रह्मर्षि कुशध्वज की कन्या वेदवती को तपस्या करते देखा। वह उस पर मुग्ध हो गया और उसके पास आकर उसका परिचय तथा अविवाहित रहने का कारण पूछा। वेदवती ने अपने परिचय देने के पश्चात् बताया कि मेरे पिता विष्णु से मेरा विवाह करना चाहते थे। इससे क्रुद्ध होकर मेरी कामना करने वाले दैत्यराज शम्भु ने सोते में उनका वध कर दिया। उनके मरने पर मेरी माता भी दुःखी होकर चिता में प्रविष्ट हो गई। तब से मैं अपने पिता के इच्छा पूरी करने के लिये भग
वान विष्णु की तपस्या कर रही हूँ। उन्हीं को मैंने अपना पति मान लिया है।
“पहले रावण ने वेदवती को बातों में फुसलाना चाहा, फिर उसने जबरदस्ती करने के लिये उसके केश पकड़ लिये। वेदवती ने एक ही झटके में पकड़े हुये केश काट डाले। फिर यह कहती हुई अग्नि में प्रविष्ट हो गई कि दुष्ट! तूने मेरा अपमान किया है। इस समय तो मैं यह शरीर त्याग रही हूँ, परन्तु तेरा विनाश करने के मैं अयोनिजा कन्या के रूप में जन्म लेकर किसी धर्मात्मा की पुत्री बनूँगी। अगले जन्म में वह कन्या कमल के रूप में उत्पन्न हुई। उस सुन्दर कान्ति वाली कमल कन्या को एक दिन रावण अपने महलों में ले गया। उसे देखकर ज्योतिषियों ने कहा कि राजन्! यदि यह कमल कन्या आपके घर में रही तो आपके और आपके कुल के विनाश का कारण बनेगी। यह सुनकर रावण ने उसे समुद्र में फेंक दिया। वहाँ से वह भूमि को प्राप्त होकर राजा जनक के यज्ञमण्डप के मध्यवर्ती भूभाग में जा पहुँची। वहाँ राजा द्वारा हल से जोती जाने वाली भूमि से वह कन्या फिर प्राप्त हुई। वही वेदवती सीता के रूप में आपकी पत्नी बनी और आप स्वयं सनातन विष्णु हैं। इस प्रकार आपके महान शत्रु रावण को वेदवती ने पहले ही अपने शाप से मार डाला। आप तो उसे मारने में केवल निमित्तमात्र थे।
“अनेक राजा महाराजाओं को पराजित करता हुआ दशग्रीव इक्ष्वाकु वंश के राजा अनरण्य के पास पहुँचा जो अयोध्या पर राज्य करते थे। उसने उन्हें भी द्वन्द युद्ध करने अथवा पराजय स्वीकार करने के लिये ललकारा। दोनों में भीषण युद्ध हुआ किन्तु ब्रह्माजी के वरदान के कारण रावण उनसे पराजित न हो सका। जब अनरण्य का शरीर बुरी तरह से क्षत-विक्षत हो गया तो रावण इक्ष्वाकु वंश का अपमान और उपहास करने लगा। इससे कुपित होकर अनरण्य ने उसे शाप दिया कि तूने अपने व्यंगपूर्ण शब्दों से इक्ष्वाकु वंश का अपमान किया है, इसलिये मैं तुझे शाप देता हूँ कि महात्मा इक्ष्वाकु के इसी वंश में दशरथनन्दन राम का जन्म होगा जो तेरा वध करेंगे। यह कहकर राजा स्वर्ग सिधार गये।
“रावण की उद्दण्डता में कमी नहीं आई। राक्षस या मनुष्य जिसको भी वह शक्तिशाली पाता, उसी के साथ जाकर युद्ध करने करने लगता। एक बार उसने सुना कि किष्किन्धापुरी का राजा वालि बड़ा बलवान और पराक्रमी है तो वह उसके पास युद्ध करने के लिये जा पहुँचा। वालि की पत्नी तारा, तारा के पिता सुषेण, युवराज अंगद और उसके भाई सुग्रीव ने उसे समझाया कि इस समय वालि नगर से बाहर सन्ध्योपासना के लिये गये हुये हैं। वे ही आपसे युद्ध कर सकते हैं। और कोई वानर इतना पराक्रमी नहीं है जो आपके साथ युद्ध कर सके। इसलिये आप थोड़ी देर उनकी प्रतीक्षा करें। फिर सुग्रीव ने कहा कि राक्षसराज! सामने जो शंख जैसे हड्डियों के ढेर लगे हैं वे वालि के साथ युद्ध की इच्छा से आये आप जैसे वीरों के ही हैं। वालि ने इन सबका अन्त किया है। यदि आप अमृत पीकर आये होंगे तो भी जिस क्षण वालि से युद्ध करेंगे, वह क्षण आपके जीवन का अन्तिम क्षण होगा। यदि आपको मरने की बहुत जल्दी हो तो आप दक्षिण सागर के तट पर चले जाइये। वहीं आपको वालि के दर्शन हो जायेंगे।
“सुग्रीव के वचन सुनकर रावण विमान पर सवार हो तत्काल दक्षिण सागर में उस स्थान पर जा पहुँचा जहां वालि सन्ध्या कर रहा था। उसने सोचा कि मैं चुपचाप वालि पर आक्रमण कर दूँगा। वालि ने रावण को आते देख लिया परन्तु वह तनिक भी विचलित नहीं हुआ और वैदिक मन्त्रों का उच्चारण करता रहा। ज्योंही उसे पकड़ने के लिये रावण ने पीछे से हाथ बढ़ाया, सतर्क वालि ने उसे पकड़कर अपनी काँख में दबा लिया और आकाश में उड़ चला। रावण बार-बार वालि को अपने नखों से कचोटता रहा किन्तु वालि ने उसकी कोई चिन्ता नहीं की। तब उसे छुड़ाने के लिये रावण के मन्त्री और अनुचर उसके पीछे शोर मचाते हुये दौड़े परन्तु वे वालि के पास तक न पहुँच सके। इस प्रकार वालि रावण को लेकर पश्चिमी सागर के तट पर पहुँचा। वहाँ उसने सन्ध्योपासना पूरी की। फिर वह दशानन को लिये हुये किष्किन्धापुरी लौटा। अपने उपवन में एक आसन पर बैठकर उसने रावण को अपनी काँख से निकालकर पूछा कि अब कहिये आप कौन हैं और किसलिये आये हैं?
“रावण ने उत्तर दिया कि मैं लंका का राजा रावण हूँ। आपके साथ युद्ध करने के लिये आया था। वह युद्ध मुझे प्राप्त हो चुका है। मैंने आपका अद्भुत बल देख लिया। अब मैं अग्नि की साक्षी देकर आपसे मित्रता करना चाहता हूँ। फिर दोनों ने अग्नि की साक्षी देकर एक दूसरे से मित्रता स्थापित की।”