निचली मंजिल का घर

निचली मंजिल का घर

हम लोग कई महीनों से मकान बदलने का कार्यक्रम बना रहे थे पर मकान मिल ही नहीं रहा था। तभी खबर मिली कि यमुनापार एक नई कॉलोनी बनी है मयूर विहार, जहाँ आसानी से मकान मिल रहे हैं। एक रोज हम उस कॉलोनी में गए। प्रोपर्टी डीलर से मिले तो उसने हमें कई मकान दिखाए। कुछ चौथी मंजिल पर, कुछ तीसरी, कुछ दूसरी, कुछ पहली और कुछ निचली मंजिल पर।

मकान देखकर आने के बाद हम कई दिनों तक यही सोचते रहे कि हमें कौन-सी मंजिल वाला मकान लेना चाहिए। पापा का कहना था कि चौथी मंजिल का। पर मम्मी ने कहा, ‘‘नहीं, वहाँ तक चढ़ने-उतरने में ही दम खुश्क हो जाएगा। फिर बच्चे गिर पड़े तो चोट अलग लगेगी। ऐसा करते हैं, पहली मंजिल का मकान ले लेते हैं, न ज्यादा चढ़ना पड़ेगा, न बच्चे सड़क पर डोलेंगे।’’ पर हमें यह कतई पसंद नहीं था क्योंकि वहाँ खेलने की जगह ही नहीं थी। सो हमने जिद की कि हम तो सबसे निचली मंजिल में रहेंगे। मम्मी-पापा को हमारी जिद के आगे झुकना पड़ा।

एक सप्ताह की मेहनत के बाद हमने अपना नया घर अच्छी तरह सजा लिया और उसमें जाकर रहने लगे।

अभी वहाँ रहते हमें दो ही दिन हुए थे कि किसी ने हमारा दरवाजा खटखटाया। जैसे ही दरवाजा खोला एक महिला भीतर आईं और मम्मी से बोलीं, ‘‘बहन जी नमस्ते। मैं आपके ऊपर वाले फ्लैट में रहती हूँ हमारी बेबी ने कंघी ऊपर से आपके लॉन में गिरा दी है, जरा उठा दीजिए।’’ मम्मी ने कंघी उठाकर दे दी। उसके बाद कभी उनकी बेबी, तो कभी दूसरी मंजिल वाली की बेबी, तो कभी तीसरी, तो कभी चौथी मंजिल वाली की बेबी कोई न कोई चीज गिरा देती। ऊपर वाली आंटियाँ वहीं से चिल्लाकर मुझे आवाज देतीं और कहतीं, ‘‘भूमिका बेटी, जरा हमारी फलाँ चीज उठाकर तो दे जाना।’’ और मुझे जाना पड़ता।

एक दिन एक साहब आए और बोले, ‘‘क्यों जी, चोपड़ा साहब ऊपर ही रहते हैं ?’’ पापा चूँकि किसी को जानते नहीं थे सो उन्होंने कह दिया, ‘‘पता नहीं।’’ वह साहब चले गए।

थोड़ी देर बाद फिर किसी ने घंटी बजाई। पापा चूँकि उस दिन घर में ही थे, उन्होंने दरवाजा खोला। सोचा कोई मेहमान आया होगा। पर सामने एक भिखारी खड़ा था। उसे दस पैसे देकर किसी तरह टाला और दरवाजा बंद किया। तभी ताड़-ताड़-ताड़ दरवाजा पीटने की आवाज आई। पापा को बहुत गुस्सा आया कि अजीब बदतमीज आदमी है जो घंटी न बजाकर दरवाजा पीट रहा है।

जब दरवाजा खोला तो देखा वहाँ तो कोई नहीं है। हाँ, दरवाजे पर कई अखबार जरूर पड़े थे। पापा हैरान। इतने अखबार ! हम तो केवल दो अखबार मँगवाते हैं। तभी उनकी समझ में आ गया कि जरूर अखबार वाला जल्दी में सबके अखबार हमारे ही दरवाजे पर फेंक गया है।

मेरी फिर परेड हुई। पहली मंजिल से चौथी मंजिल तक के दरवाजे खटखटा कर उन्हें अखबार पहुँचाना पड़ा। अभी मैं नीचे पहुँची ही थी कि फिर किसी ने घंटी बजाई। पापा ने दरवाजा खोला तो सामने एक सज्जन खड़े थे।

वह बोले, ‘‘नमस्ते जी, मैं इत्थे त्वाडे पड़ोस मैं रेंदा हूँ। सानू ये दस्सो इत्थे कच्चा दूध मिल्दा ए ?’’

पापा ने कहा, ‘‘नहीं।’’

‘‘होर जी मेहरी नौकर वगैरा ?’’

पापा ने कहा, ‘‘पता नहीं।’’

वे बोले, ‘‘अजी पता तो त्यानू जरूर होगा, तुसी पुराने वाशिंदे हो। खैर, कोई गल नईं, मैनूं कोई छेती लोड़ नई हैगी, जैदो त्वानूं कोई दिख जाये साडे घर भेज देना। ये कारड रख छोड़ो, इसदे विच साडा नाम होर एडरस छप्पा ए।’’ उनके जाते ही पापा सिर पकड़कर बैठ गए। तभी दरवाजा खुला देख वही सज्जन एक और आदमी के साथ आ गए जो सुबह सवेरे चोपड़ा साहब को पूछते आए थे। वे आते ही बोले, ‘‘नमस्कार जैन साहब, मैं आपका पड़ोसी हूँ, थर्ड फ्लोर पर रहता हूँ। आपसे परिचय नहीं था न, सो आज हमारे मेहमान को बहुत परेशान होना पड़ा। खैर, अब याद रखना जी। मैं चोपड़ा हूँ, थर्ड फ्लोर पर रहता हूँ, कोई आकर पूछे तो बता देना। अच्छा नमस्ते, फिर मिलेंगे।’’

पापा का पारा सातवें आसमान पर पहुँच गया। वे बेचारे अभी सुबह की चाय तक नहीं पी सके थे। उन्होंने झट से दरवाजा बंद किया और फिर गुमसुम बैठ गए। तभी फिर घंटी बजी।

जैसे ही दरवाजा खोला, एक सज्जन और उनकी पत्नी भीतर आ गए। आते ही बोले, ‘‘माफ करना भाई साहब, हम दूसरी मंजिल वाले सक्सेना साहब से मिलने आए थे, पर वे तो हैं नहीं, उनके बच्चे के लिए यह मिठाई का डिब्बा लाए थे। आप उन्हें दे देना। और कहना वर्मा जी आए थे, अच्छा भाई साहब, चलें पहले ही बहुत देर हो गई है।’’

जैसे ही वे बाहर जाने के लिए उठे, मैं दरवाजा बंद करने के लिए उनके पीछे-पीछे चल दी। मुझे रोकते हुए पापा बोले, ‘‘रहने दे भूमिका। फिर कोई आएगा तो फिर खोलना पड़ेगा।’’

तभी पोस्टमेन आया और बोला, ‘‘क्यों जी, सक्सेना साहब कहाँ गए ?’’

पापा को गुस्सा तो आ ही रहा था, उन्होंने कहा, ‘‘मुझे नहीं मालूम मुझसे कहकर नहीं गए।’’

पोस्टमेन बोला, ‘‘साहब उनका तार है, जब वह आएं तो उन्हें पोस्टऑफिस भेज देना।’’ और वह चला गया।

उसके जाते ही पापा बाथरूम चले गए। मैं अपना होमवर्क करने अपनी स्टडी में चली गई और मम्मी रसोई में नाश्ता बनाने लगीं।

अचानक मम्मी के चीखने की आवाज सुनकर मैं और पापा ड्राइंगरूम में आए तो देखा सक्सेना साहब के बच्चे के लिए वर्मा साहब जो मिठाई का डिब्बा दे गए थे उसे इत्मीनान से एक कुत्ता खा रहा था। यह नजारा देखते ही पापा ने अपना सिर पीट लिया और बिना नाश्ता किए ही घर से चले गए।

दो घंटे बाद जब पापा लौटे तो उनके साथ एक ट्रक भी था। आते ही उन्होंने मम्मी से कहा, ‘‘हम तो बाज आए, निचली मंजिल का घर न हुआ सूचना केंद्र हो गया। झटपट सामान लपेटो। मैंने सादतपुर गाँव में इकमंजिल मकान किराए पर ले लिया है, अब हम वहीं रहेंगे।’’