अंधेर नगरी चौपट राजा टके सेर भाजी, टके सेर खाजा
काशी-तीर्थयात्रा की वापसी में एक गुरु और शिष्य किसी नगरी में पहुँचे। नाम उसका अंधेर नगरी था। शिष्य बाजार में सौदा खरीदने निकला तो वहाँ हर चीज एक ही भाव-‘सब धान बाइस पसेरी।’
भाजी टका सेर और खाजा (एक मिठाई) भी टका सेर। शिष्य और चीजें खरीदने के झंझट में क्यों पड़ता ? एक टके का सेर भर खाजा खरीद लाया और बहुत खुश होकर अपने गुरु से बोला, ‘‘गुरुजी, यहाँ तो बड़ा मजा है। खूब सस्ती हैं, चीजें, सब टका सेर। देखिए, एक टका में यह सेर भर खाजा लाया हूँ। हम तो अब कुछ दिन यहीं मौज करेंगे। छोड़िए तीर्थयात्रा, यह सुख और कहाँ मिलेगा ?’’
गुरु समझदार थे, बोले, ‘‘बच्चा, इसका नाम ही अंधेर नगरी है। यहाँ रहना अच्छा नहीं, जल्दी भाग निकलना चाहिए यहाँ से। वैसे भी, साधु का एक ठिकाने पर जमना अच्छा नहीं। कहा है, ‘साधु रमता भला, पानी बहता भला।’’
पर शिष्य को गुरु की बात नहीं भाई। बोला, ‘‘अपने राम तो यहाँ कुछ दिन जरूर रहेंगे।’’
गुरु को शिष्य को अकेले छोड़ जाना उचित नहीं लगा। बोले, ‘अच्छा, रहो और कुछ दिन। जो होगा, भुगता जाएगा।’’
अब तक शिष्य अंधेर नगरी का सस्ता माल खा-खाकर खूब मोटा हो गया। उन्हीं दिनों एक खूनी को फाँसी की सजा हुई थी। पर वह अपराधी बहुत दुबला-पतला था। फाँसी का फंदा उसके गले में ढीला था। इस समस्या से निजात पाने के लिए राजा ने कहा कि जिसकी गरदन मोटी हो, उसे ही फाँसी लगा दो। अंधेर नगरी ही जो ठहरी। हाकिम ने सिपाहियों को हुक्म दिया कि जो मोटा आदमी सामने मिल जाए, उसी को फाँसी लगा दो। एक खून के बदले में किसी एक को फाँसी होनी चाहिए। इसकी हो या उसकी, किसी की भी हो-‘जीव के बदले जीव।’
सिपाही मोटा व्यक्ति खोजने चले तो वही मोटा शिष्य सामने पड़ा। वह हलवाई के यहाँ खाजा खरीद रहा था। सिपाही उसे ही पकड़कर ले चले। गुरु को खबर लगी, वह दौड़े आए। सब बातें लोगों से मालूम कीं। एक बार तो उनके मन में आया कि इसे अपनी बेवकूफी का फल भोगने दें, पर गुरु का हृदय बड़ा दयालु था। सोचा, जीता रहेगा तो आगे समझ जाएगा। सिपाहियों के पास जाकर बोले, ‘‘इस वक्त फाँसी चढ़ने का हक तो मेरा है, इसका नहीं।’’
‘‘क्यों ?’’
‘‘इस वक्त कुछ घंटों के मुहूर्त में फाँसी चढ़कर मरनेवाला सीधा स्वर्ग जाएगा। शास्त्र में गुरु के पहले शिष्य को स्वर्ग जाने का अधिकार नहीं है।’’
शिष्य गुरु की चाल समझ गया चिल्ला उठा, ‘‘नहीं गुरुजी, मैं ही जाऊँगा। सिपाहियों ने मुझे पकड़ा है। आपको पकड़ा होता तो आप जाते।’’
इसी एक बात पर दोनों ने परस्पर झगड़ना शुरू कर दिया। सिपाही हैरान थे। भीड़ इकट्ठी हो गई। फाँसी चढ़ने के लिए झगड़ना-वहाँ के लोगों के लिए यह एकदम नई बात थी।
जल्दी ही यह बात राजा के कानों तक पहुँची। राजा ने कहा, ‘‘यदि ऐसा मुहूर्त है तो सबसे पहला अधिकार तो राजा का ही होता है और उसके बाद क्रम उसके उच्चाधिकारियों का।’’
गुरु-शिष्य बहुत चिल्लाए कि साधु के रहते स्वर्ग में जाने का अधिकार किसी दूसरे को कदापि नहीं है; पर किसी ने एक न सुनी। सबसे पहले राजा और फिर एक-एक करके कई मंत्री अधिकारी फाँसी पर चढ़ गए। गुरु ने सोचा कि अब ज्यादा मनुष्य-हत्या नहीं होनी चाहिए, तो अफसोस करते हुए बोले-‘‘अब तो स्वर्ग जाने का मुहूर्त समाप्त हो गया।’’ इसके बाद फिर कोई फाँसी न चढ़ा।
तभी गुरु ने शिष्य के कान में कहा, ‘‘अब यहाँ से जल्दी से निकल भागना चाहिए। देख लिया न तुमने कि अंधेर नगरी में कैसे-कैसे बेवकूफ बसते हैं ?