पंछी बोला चार पहर
दोस्तों, पुराने समय की बात है। एक राजा था। वह बड़ा समझदार था और हर नई बात को जानने को इच्छुक रहता था। उसके महल के आंगन में एक बकौली का पेड़ था। रात को रोज नियम से एक पक्षी उस पेड़ पर आकर बैठता और रात के चारों पहरों के लिए अलग-अलग चार तरह की बातें कहा करता।
पहले पहर में कहता :
“किस मुख दूध पिलाऊं,
किस मुख दूध पिलाऊं”
दूसरा पहर लगते बोलता :
“ऐसा कहूं न दीख,
ऐसा कहूं न दीख!”
जब तीसरा पहर आता तो कहने लगता :
“अब हम करबू का,
अब हम करबू का?’
जब चौथा पहर शुरू होता तो वह कहता :
“सब बम्मन मर जायें,
सब बम्मन मर जायें!”
राजा रोज रात को जागकर पक्षी के मुख से चारों पहरों की चार अलग-अलग बातें सुनता। सोचता, पक्षी क्या कहता? पर उसकी समझ में कुछ न आता। राजा की चिन्ता बढ़ती गई। जब वह उसका अर्थ निकालने में असफल रहा तो हार कर उसने अपने पुरोहित को बुलाया। उसे सब हाल सुनाया और उससे पक्षी के प्रश्नों का उत्तर पूछा। पुरोहित भी एक साथ उत्तर नहीं दे सका। उसने कुछ समय की मुहलत मांगी और चिंता में डूबा हुआ घर चला आया। उसके सिर में राजा की पूछी गई चारों बातें बराबर चक्कर काटती रहीं। वह बहुतेरा सोचता, पर उसे कोई जवाब न सूझता। अपने पति को हैरान देखकर ब्राह्रणी ने पूछा, “तुम इतने परेशान क्यों दीखते हो? मुझे बताओ,बात क्या है?”
ब्राह्मण ने कहा, “क्या बताऊं ! एक बड़ी ही कठिन समस्या मेरे सामने आ खड़ी हुई है। राजा के महल का जो आंगन है, वहां रोज रात को एक पक्षी आता है और चारों पहरों मे नित्य नियम से चार आलग-अलग बातें कहता है। राजा पक्षी की उन बातों का मतलब नहीं समझा तो उसने मुझसे उनका मतलब पूछा। पर पक्षी की पहेलियां मेरी समझ में भी नहीं आतीं। राजा को जाकर क्या जवाब दूं, बस इसी उधेड़-बुन में हूं।”
ब्राह्राणी बोली, “पक्षी कहता क्या है? जरा मुझे भी सुनाओ।”
ब्राह्राणी ने चारों पहरों की चारों बातें कह सुनायीं। सुनकर ब्राह्राणी बोली, “वाह, यह कौन कठिन बात है! इसका उत्तर तो मैं दे सकती हूं। चिंता मत करो। जाओ, राजा से जाकर कह दो कि पक्षी की बातों का मतलब मैं बताऊंगी।”
ब्राह्राण राजा के महल में गया और बोला, “महाराज, आप जो पक्षी के प्रश्नों के उत्तर जानना चाहते हैं, उनको मेरी स्त्री बता सकती है।”
पुरोहित की बात सुनकर राजा ने उसकी स्त्री को बुलाने के लिए पालकी भेजी। ब्राह्राणी आ गई। राजा-रानी ने उसे आदर से बिठाया। रात हुई तो पहले पहर पक्षी बोला:
“किस मुख दूध पिलाऊं,
किस मुख दूध पिलाऊं?”
राजा ने कहा, “पंडितानी, सुन रही हो, पक्षी क्या बोलता है?”
वह बोली, “हां, महाराज ! सुन रहीं हूं। वह अधकट बात कहता है।”
राजा ने पूछा, “अधकट बात कैसी?”
पंडितानी ने उत्तर दिया, “राजन्, सुनो, पूरी बात इस प्रकार है-
लंका में रावण भयो बीस भुजा दश शीश,
माता ओ की जा कहे, किस मुख दूध पिलाऊं।
किस मुख दूध पिलाऊं?”
“लंका में रावण ने जन्म लिया है, उसकी बीस भुजाएं हैं और दश शीश हैं। उसकी माता कहती है कि उसे उसके कौन-से मुख से दूध पिलाऊं?”
राज बोला, “बहुत ठीक ! बहुत ठीक ! तुमने सही अर्थ लगा लिया।”
दूसरा पहर हुआ तो पक्षी कहने लगा :
ऐसो कहूं न दीख,
ऐसो कहूं न दीख।
राजा बोला, “पंडितानी, इसका क्या अर्थ है?”
पडितानी ने समझाया, “महाराज! सुनो, पक्षी बोलता है : “घर जम्ब नव दीप
बिना चिंता को आदमी,
ऐसो कहूं न दीख,
ऐसो कहूं न दीख!”
“चारों दिशा, सारी पृथ्वी, नवखण्ड, सभी छान डालो, पर बिना चिंता का आदमी नहीं मिलेगा। मनुष्य को कोई-न-कोई चिंता हर समय लगी ही रहती है। कहिये, महाराज! सच है या नहीं?”
राजा बोला, “तुम ठीक कहती हो।”
तीसरा पहर लगा तो पक्षी ने रोज की तरह अपनी बात को दोहराया :
“अब हम करबू का,
अब हम करबू का?”
ब्राह्मणी राजा से बोली, “महाराज, इसका मर्म भी मैं आपको बतला देती हूं। सुनिये: पांच वर्ष की कन्या साठे दई ब्याह,
बैठी करम बिसूरती,
अब हम करबू का,
अब हम करबू का।
“पांच वर्ष की कन्या को साठ वर्ष के बूढ़े के गले बांध दो तो बेचारी अपना करम पीट कर यही कहेगी- “अब हम करबू का, अब हम करबू का?” सही है न, महाराज!”
राजा बोला, “पंडितानी, तुम्हारी यह बात भी सही लगी।’
चौथा पहर हुआ तो पक्षी ने चोंच खोली :
“सब बम्मन मर जायें,
सब बम्मन मर जायें!”
तभी राजा ने ब्राह्मणी से कहा, “सुनो, पंडितानी, पक्षी जो कुछ कह रहा है, क्या वह उचित है?”
ब्रहाणी मुस्कायी और कहने लगी, “महाराज! मैंने पहले ही कहा है कि पक्षी अधकट बात कहता है। वह तो ऐसे सब ब्राह्मणों के मरने की बात कहता है :
विश्वा संगत जो करें सुरा मांस जो खायें,
बिना सपरे भोजन करें, वै सब बम्मन मर जायें
वै सब बम्मन मर जायें।
जो ब्राह्मण वेश्या की संगति करते हैं, सुरा ओर मांस का सेवन करते हैं और बिना स्नान किये भोजन करते है
,ऐसे सब ब्रह्राणों का मर जाना ही उचित है। जब बोलिये, पक्षी का कहना ठीक है या नहीं?”
राजा ने कहा, ‘तुम्हारी चारों बातें बावन तोला, पाव रत्ती ठीक लगीं। तुम्हारी बुद्धि धन्य है!”
राजा-रानी ने उसको बढ़िया कपड़े और गहने देकर मान-सम्मान से विदा किया। अब पुरोहित का सम्मान दरबार में पहले से भी अधिक बढ़ गया था.