डाँकू रत्नाकर और देवऋषि नारद

डाँकू रत्नाकर और देवऋषि नारद

बहुत समय पहले की बात है किसी राज्य में एक बड़े ही खूंखार डाँकू का भय व्याप्त था। उस डाँकू का नाम रत्नाकर था। वह अपने साथियों के साथ जंगल से गुजर रहे राहगीरों को लूटता और विरोध करने पर उनकी हत्या भी कर देता।
एक बार देवऋषि नारद भी उन्ही जंगलों से भगवान का जप करते हुए जा रहे थे। जब वे घने बीहड़ों में पहुंचे तभी उन्हें कुछ लोग विपरीत दिशा में भागते हुए दिखे।

देवऋषि ने उनसे ऐसा करने का कारण पूछा तो सभी ने मार्ग में रत्नाकर के होने की बात बतायी। पर बावजूद इसके देवऋषि आगे बढ़ने लगे।

“क्या आपको भय नहीं लगता ?” , भाग रहे लोगों ने उन्हें ऐसा करते देख पुछा।

“नहीं, मैं मानता ही नहीं की मेरे आलावा यहाँ कोई और है , और भय तो हमेशा किसी और के होने से लगता है , स्वयं से नहीं। “, ऋषि ने ऐसा कहते हुए अपने कदम आगे बढ़ा दिए।

कुछ ही दूर जाने पर डाँकू रत्नाकर अपने साथियों के साथ उनके समक्ष आ पहुंचा।

रत्नाकर – नारद , मैं रत्नाकर हूँ , डाँकू रत्नाकर।

नारद मुस्कुराते हुए बोले – मैं नारद हूँ देवऋषि नारद , तुम्हारा अतिथि और मैं निर्भय हूँ। क्या तुम निर्भय हो ?

रत्नाकर – क्या मतलब है तुम्हारा ?

नारद – ना मुझे प्राणो का भय है , ना असफलता का , ना कल का ना कलंक का, और कोई भय है जो तुम जानते हो ? अब तुम बताओ क्या तुम निर्भय हो ?

रत्नाकर – हाँ, मैं निर्भय हूँ , ना मुझे प्राणो का भय है , ना असफलता का , ना कल का ना कलंक का।

नारद – तो तुम यहाँ इन घने जंगलों में छिप कर क्यों रहते हो ? क्या राजा से डरते हो ?

रत्नाकर – नहीं !

नारद – क्या प्रजा से डरते हो ?

रत्नाकर- नहीं !

नारद- क्या पाप से डरते हो ?

रत्नाकर – नहीं !

नारद – तो यहाँ छिप कर क्यों रहते हो ?

यह सुनकर रत्नाकर घबरा गया और एकटक देवऋषि को घूरने लगा।

नारद – उत्तर मैं देता हूँ। तुम पाप करते हो और पाप से डरते हो।

रत्नाकर हँसते हुए बोला – नारद तुम अपनी इन बातों से मुझे भ्रमित नहीं कर सकते। ना मैं पाप से डरता हूँ , ना पुण्य से , ना देवताओं से ना दानवों से , ना राजा से ना राज्य से , ना दंड से ना विधान से। मैंने राज्य के साथ द्रोह किया है, मैंने समाज के साथ द्रोह किया है, इसलिए मैं यहाँ इन बीहड़ों में रहता हूँ। ये प्रतिशोध है मेरा।

नारद – क्या था वो पाप जिससे तुम डरते हो ?

रत्नाकर- मुझे इतना मत उकसाओ की मैं तुम्हारी हत्या कर दूँ नारद । इतना तो मैं जान ही चुका हूँ कि पाप और पुण्य की परिभाषा हमेशा ताकतवर तय करते हैं और उसे कमजोरों पर थोपते हैं। मैंने साम्राज्यों का विस्तार देखा है, हत्या से, बल से , छल से , मैंने वाणिज्य का विस्तार देखा है , कपट से , अनीति से , अधर्म से , वो पाप नहीं था ? मैं सैनिक था , दुष्ट और निर्दयी सौदागरों की भी रक्षा की… वो पाप नहीं था ? युद्ध में हारे हुए लोगों की स्त्रीयों के साथ पशुता का व्यवहार करने वाले सैनिकों की हत्या क्या की मैंने , मैं पापी हो गया ? राजा , सेना और सेनापति का अपराधी हो गया मैं। क्या वो पाप था ?

नारद – दूसरों का पाप अपने पाप को सही नहीं ठहरा सकता रत्नाकर।

रत्नाकर चीखते हुए – मैं पापी नहीं हूँ।

नारद – कौन निर्णय करेगा ? वो जो इस यात्रा में तुम्हारे साथ हैं या नहीं हैं ? क्या तुम्हारी पत्नी , तुम्हारा पुत्र, इस पाप में तुम्हारे साथ हैं ?

रत्नाकर – हाँ , वो क्यों साथ नहीं होंगे, मैं जो ये सब करता हूँ , उनके सुख के लिए ही तो करता हूँ। तो जो तुम्हारे साथ हैं उन्ही को निर्णायक बनाते हैं। जाओ , अपनी पत्नी से, अपने पुत्र से , अपने पिता से, अपने निकट सम्बन्धियों से पूछ कर आओ, जो तुम कर रहे हो , क्या वो पाप नहीं है , और क्या वे सब इस पाप में तुम्हारे साथ हैं ? इस पाप के भागीदार हैं ?

रत्नाकर – ठीक है मैं अभी जाकर लौटता हूँ।

और अपने साथियों को नारद को बाँध कर रखने का निर्देश देकर रत्नाकर सीधा अपनी पत्नी के पास जाता है और उससे पूछता है – ” ये मैं जो कर रहा हूँ , क्या वो पाप है ? क्या तुम इस पाप में मेरी भागीदार हो? “

पत्नी कहती है , ” नहीं स्वामी , मैंने आपके सुख में , दुःख में साथ देने की कसम खाई है , आपके पाप में भागीदार बनने की नहीं। “

यह सुन रत्नाकर स्तब्ध रह जाता है। फिर वह अपने अंधे पिता के समक्ष यही प्रश्न दोहराता है , ” पिताजी ,ये जो मैं कर रहा हूँ , क्या वो पाप है ? क्या आप इस पाप में मेरी भागीदार हैं ? “

पिताजी बोलते हैं , ” नहीं पुत्र, ये तो तेरी कमाई है , इसे मैं कैसे बाँट सकता हूँ। “

यह सुनते ही मानो रत्नाकर पर बिजली टूट पड़ती है। वह बेहद दुखी हो जाता है और धीरे – धीरे चलते हुए वापस देवऋषि नारद के पास पहुँच जाता है।

नारद- तुम्हारे साथी मुझे अकेला छोड़ जा चुके हैं रत्नाकर।

रत्नाकर

, देवऋषि के चरणो में गिरते हुए – क्षमा देवऋषि क्षमा, अब तो मैं भी अकेला ही हूँ।

नारद – नहीं रत्नाकर , तुम्ही अपने मित्र , और तुम्ही अपने शत्रु हो , तुम्हारे पुराने संसार की रचना भी तुम्ही ने की थी.. तुम्हारे नए संसार की रचना भी तुम्ही करोगे। इसलिए उठो और अपने पुरुषार्थ से अपना भविष्य लिखो …. राम-राम , तुम्हारा पथ सुबह हो।

मित्रों , इस घटना के पश्चात डाकू रत्नाकर का जीवन पूरी तरह बदल गया, उसने पाप के मार्ग को त्याग पुण्ये के मार्ग को अपनाया और आगे चलकर यही डाँकू राम-कथा का रचयिता मह्रिषी वाल्मीकि बना।

उपनिषदों से ली गयी यह कथा बताती है कि मनुष्य असीम संभावनाओं का स्वामी है , जहां एक तरफ वह अपने पुरुषार्थ से राजा बन सकता है तो वहीँ अपने आलस्य से रंक भी। वह अपने अविवेक से अपना नाश कर सकता है तो अपने विवेक से अपना निर्वाण भी। यानि , हम सब अपने आप में महाशक्तिशाली हैं, पर हममें से ज्यादातर लोग पूरे जीवन काल में अपनी असीम शक्तियों का एक छोटा सा हिस्सा भी प्रयोग नहीं कर पाते। क्यों ना हम भी डाँकू रत्नाकर की तरह सामान्यता को त्याग कर उत्कृष्टता की ओर बढ़ चलें !